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सतीश खनगवाल एक पारिवारिक शादी में सम्मिलित होने के लिए कोट-पैंट का अच्छा-सा कपड़ा खरीद कर किसी अच्छे दर्जी की तलाश में निकला। लेकिन दो-तीन किलोमीटर क्षेत्र के मुख्य बाजारों में तलाश करने पर
मात्र एक दर्जी की दुकान मिली। आश्चर्य हुआ कि आखिर दर्जियों की दुकानें कहां गायब हो रही हैं। दिमाग पर जोर डाला कि अंतिम बार किसी दर्जी से कब कपड़े सिलवाए थे? याद आया कि पिछले कई सालों से किसी
दर्जी की दुकान पर चढ़ा ही नहीं और रेडिमेड कपड़े ही खरीद कर पहन रहा हूं। समझ आ गया कि दर्जियों की दुकानें क्यों गायब हो रही हैं! एक समय था जब हर चौथी-पांचवी दुकान दर्जियों की हुआ करती थी। कोई
पैंट-कमीज का विशेषज्ञ होता था तो कोई कुर्ते-पायजामे का। कोई सफारी-सूट का तो कोई कोट-पैंट का। दर्जी भी किसी सेलिब्रेटी की तरह ‘फेमस’ हुआ करते थे। यार-दोस्त और परिचित सलाह देते थे कि अगर कपड़े
सिलाने हों तो फलां दर्जी के पास जाओ। त्योहारों या शादियों के मौसम में तो दर्जियों के अपने नखरे होते थे और ग्राहक खुशी-खुशी उनके नखरे उठाते भी थे। उनसे जल्दी से जल्दी कपड़े सिल कर देने का
आग्रह करते थे। जब नए कपड़े सिल कर आते थे तो उन्हें पहन कर अपने आपको किसी राजा-बाबू से कम नहीं समझते थे। आज महंगे से मंहगे ब्रांडेड कपड़ों में भी व ‘फीलिंग’ नहीं आती। दरअसल, उसका कारण भी था। तब
तीन-चार सालों में कोई एक-दो जोड़ी कपड़े सिलवाए जाते थे। जबकि आज मध्यम वर्ग का एक व्यक्ति साल में चार-पांच जोड़ी कपड़े आसानी से खरीद डालता है। वह जमाना अलग था। नए कपड़े पहन कर पूरी आन-बान और शान
के साथ आयोजनों में शामिल होने और दोस्तों के सामने इतरा कर निकलने का आनंद ही कुछ और था। हमें पता होता था कि अब अगले दो-तीन साल तक कोई नए कपड़े नहीं मिलने वाले। एक ही कपड़े को कितने ही आयोजनों
में बिना किसी शर्म-संकोच के पहन लिया जाता था। यहां तक कि बड़े-छोटे भाई-बहनों के कपड़े भी अगर फिट आ जाते थे तो बिना किसी झिझक के पहन लेते थे। घर-परिवार के अन्य सदस्यों के कपड़े पहनने से भी इनकार
नहीं किया जाता था और मित्रों के कपड़ों पर तो अपना अधिकार ही होता था। इससे आपसी संबंधों में स्नेह बना रहता था। घर में बचत होती थी और फिजूलखर्ची पर रोक लगती थी। जबकि आज हर आयोजन के लिए अलग
कपड़े खरीदे जाते हैं। यहां तक कि बच्चे भी कह देते हैं कि ‘ये कपड़े तो फलां जगह फलां आयोजन में पहन चुके हैं।’ अपने भाई-बहनों के कपड़े पहनना तो बहुत दूर की बात हो गई है। दर्जी की दुकान से नए कपड़े
इस्तरी होकर आते थे। कोशिश होती थी कि उसकी ‘क्रीज’ और चमक वैसी ही बने रहे। इसलिए अगले आयोजन के लिए कपड़े निकाल कर वैसे के वैसे तह करके रख देते थे। अगर कपड़े धुल जाते तो इस्तरी करने के भी
अद्भुत तरीके होते थे। कपड़ों को तह करके पलंग पर बिस्तर या गद्दे के नीचे रख देते थे। आपात स्थिति में खाने की थाली को हल्का गरम करके कपड़ों पर फेर लिया जाता था। आधुनिकतम प्रेस से अपने कपड़ों को
इस्तरी करने वाली आज की पीढ़ी को शायद इन तरीकों पर विश्वास भी न आए। जीवन जीने की आधुनिक शैली और दिखावे की अंधी दौड़ में हम बहुत-कुछ खोते जा रहे हैं। अतिसुंदर दिखने की इच्छा को बाजारवाद ने चरम
पर पहुंचा दिया है। आज का मध्यम वर्ग अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा केवल अपने कपड़ोें पर खर्च करता है। शादी-ब्याह में कुल खर्चे का कम से कम चालीस प्रतिशत केवल कपड़ों पर खर्च होने लगा है। महंगे
शॉपिंग माल और बड़ी दुकानों की चकाचौंध और कंपनियों के रियायत के खेल में हमें पता ही नहीं चलता कि हम कब अपनी जेब हल्की कर बैठते हैं। आधुनिक फैशन और डिजाइनर कपड़ों के नाम पर कंपनियां फटे कपड़े भी
खुलेआम बेच रही हैं और हमारी युवा पीढ़ी को मूर्ख बना रही हैं। कपड़े केवल हमारे शरीर को ही नहीं छिपाते, बल्कि हमें कई प्रकार के मौसमी प्रकोपों और बीमारियों से भी बचाते हैं। साथ ही समाज में हमारा
मान-सम्मान भी हमारे कपड़ों के साथ जुड़ा होता है। अच्छे कपड़ों का अर्थ महंगे और ब्रांडेड कपड़े नहीं, बल्कि ऐसे कपड़ों से है जो हमारे शरीर पर अच्छे लगते हों। जो हमारे व्यक्तित्व से मेल खाते हों और
उसे निखारते हों। पैसा हमारा है, आप जैसे चाहें, उसे खर्च कर सकते हैं। लेकिन फैशन के नाम पर बाजारवाद और कंपनियों के खेल में पड़ कर फिजूलखर्च करना किसी भी दृष्टि से बुद्धिमता नहीं कही जा सकती
है। एक कपड़ा सिर्फ हमारे घर-परिवार के रिश्ते नहीं संजोता, बल्कि दर्जी, रंगरेज, रफूगर, इस्तरी वाले आदि से भी हमारे रिश्ते प्रगाढ़ बनाता है। आज दर्जी, रंगरेज, रफूगर आदि की दुकानें धीरे-धीरे
लुप्त होती जा रही हैं। बाजार ने देखते ही देखते परिदृश्य बदल दिया है और बदल रहा है। ऐसे में आइए, बाजार के मकड़जाल से बाहर निकल कर कपड़ों के बहाने सही, अपने आसपास के संबंधों की महक बनाए रखें।