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ममता व्यास मैं अस्पताल में अपना नाम पुकारे जाने का इंतजार कर रही थी। मेरे सामने ही एक पति-पत्नी अपने चार-पांच साल के बच्चे के साथ बैठे थे। बच्चा बहुत कमजोर और डरा हुआ दिख रहा था और अपने पिता
के पास सट कर बैठा हुआ था। उसकी मां से मैंने बात की तो पता चला कि आज उस बच्चे के दिल का ऑपरेशन होना है। तभी एक नर्स ने उसका नाम पुकारा तो बच्चा अपना नाम सुन कर डर कर अपने पिता के और नजदीक आ
गया। दोनों पति-पत्नी बच्चे के साथ उठ कर जाने लगे तो दरवाजे पर खड़ी नर्स बोली कि कोई एक भीतर जाएगा डॉक्टर से बात करने। मां जाने लगी तो बच्चा चिल्लाया कि ‘पापा के साथ..!’ मां पीछे हट गई। बच्चा
पिता के गले से चिपक कर भीतर गया। थोड़ी देर बाद नर्स ऑपरेशन से पहले होने वाली जांच के लिए उस बच्चे को पिता की गोद से ले जाने लगी तो बच्चा करुण स्वर में ‘ओ पापा, ओ पापा…’ चिल्लाने लगा। उसने एक
बार भी मां को नहीं पुकारा। तभी बच्चे के पिता ने खुद को संभालते हुए बेटे से कहा कि ‘मैं भी आ रहा हूं अंदर!’ बच्चे को जैसे अपने पिता की हर बात पर भरोसा था। वह तुरंत चुप हो गया। तभी नर्स ने
मुस्कराते हुए उसे एक इंजेक्शन दे दिया। मां अभी भी चिंता में बैठी अपने रिश्तेदारों को फोन कर रही थी, लेकिन पिता की आत्मा तो जैसे उस बच्चे के साथ ही ऑपरेशन थियेटर में चली गई थी। उस दृश्य को
देख मेरा मन भी दुख से भर गया। सारी दुनिया कहती है कि मां और बच्चे का नाता अटूट होता है। मां जितना प्यार बच्चे से करती है, पिता नहीं कर पाते। मैं हमेशा कहती हूं प्यार की अपनी अलग भाषा है। वह
न मां देखता है, न बाप। वह बस मन देखता है। कौन आपसे कितना जुड़ा हुआ है, कितने गहरे तक जुड़ा है, सिर्फ मन को पता होता है। मन ही मन की सुनता है और मन ही समझता है। वह छोटा बच्चा अपने पिता से
ज्यादा जुड़ा था। डॉक्टर के पास जाते समय उसे मां नहीं, अपने पिता पर भरोसा था। इसका मतलब यह नहीं कि वह बच्चा अपनी मां से प्रेम नहीं करता होगा या मां उससे प्रेम नहीं करती होगी। लेकिन बात दरअसल
यह है कि हम सभी दुख और पीड़ा के समय अपने सबसे प्रिय व्यक्ति के साथ होना चाहते हैं, जिस पर हमारा मन भरोसा करता है। हम सभी के पास एक कोमल मन होता है। संसार में रहते हुए हम खुद को हमेशा मजबूत
दिखाते हैं। लेकिन जब दुख का सामना होता है तो सबसे पहले हम अपने उस प्रिय व्यक्ति को ही याद करते हैं। हम उसका साथ चाहते हैं, उसके पास रहना चाहते हैं। वह कोई भी हो सकता है- मां, पिता, भाई-बहन,
दोस्त या पड़ोसी। कोई भी बीमारी, अस्पताल, डॉक्टर, दवाएं और कई जांच। कोई भीतर से कितना भी मजबूत हो, ऑपरेशन के लिए जाते समय उसके चेहरे पर एक दुख या डर होता है। इस वक्त हर मरीज को यही लगता है कि
कहीं उसका ऑपरेशन असफल हो गया तो वह फिर कभी अपने प्रिय लोगों से नहीं मिल सकेगा। दूसरी तरफ उसके परिवार के लोग, दोस्त भी कहीं न कहीं डरे होते हैं कि क्या पता ये मुलाकात आखिरी न हो जाए! एक बस
डॉक्टर ही मुस्कराते हैं उस वक्त और पूरे आत्मविश्वास से भरे होते हैं। उन्हें ऐसे ऑपरेशन कई बार करने ही होते हैं। लेकिन जिस परिवार का व्यक्ति भीतर गया है, उसके लिए यह प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण
होती है। सबसे ज्यादा उस मरीज के लिए, जिसे थोड़ी देर के लिए सही, अपने लोगों को छोड़ कर ऑपरेशन थियेटर के दरवाजे के दूसरी तरफ बंद हो जाना है। जब तक उस पर एनेस्थीसिया का असर नहीं होता, उस पल तक
बिजली की गति से हजारों विचार उसके दिमाग में चलते हैं। अपने सबसे खास व्यक्ति का खयाल, वे जिसे सबसे अधिक प्यार करते हैं, उसकी याद। वह पास हो तो उसका चेहरा देखने की आस, दूर हो तो उसकी आवाज
सुनने की आस! ठीक वैसे ही, जैसे उस मासूम बच्चे की पुकार में उसकी पीड़ा थी। दोनों बांहें बुलाने के लिए उठी हुर्इं। होठों पर नाम और आंखों में आंसू… एक बार गले लग जाने की आस! उसे उस पीड़ा और दुख
से उस वक्त कोई बचा सकता है संसार में तो बस वही व्यक्ति, जिसे वह सबसे ज्यादा प्यार करता है। वह बस एक बार आकर कह दे- ‘सब ठीक होगा।’ वह बस दूर से ही कह दे ‘मैं हूं न’, जैसे उस पिता ने अपने
बच्चे को कहा कि ‘मैं भी आ रहा हूं अंदर’ और बच्चा उसे सही समझ बैठा। जीवन भर हम लाख चतुराई के खेल खेलते रहें, लेकिन जीवन के कोमल क्षणों में हमें न जाने क्यों लगता है कि कोई हमें भी बुद्धू बना
दे, झूठी ही सही, कह दे कि ‘मैं साथ हूं’। कभी-कभी झूठी तसल्ली जीने की उम्मीद जगा देती है।