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मध्यपूर्व में अमेरिका के हाथों इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के पतन के साथ ही वहां भारी राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक उथल-पुथल हुई और इसी की कोख से पैदा हुआ आज का सबसे दुर्दांत आतंकवादी संगठन
इस्लामिक स्टेट आॅफ इराक एंड सीरिया (आइएसआइएस)। अब इसे आइएस के नाम से जाना जाता है। नाम के मामले में भी इस संगठन की शोधन प्रक्रिया वैसी ही रही जैसी उसकी महत्त्वाकांक्षा। ‘ बहरहाल,
ख्वाबे-खलीफा देखने वाला यह संगठन इस समय सबसे तेजी से फैलता हुआ आतंकवादी संगठन है जिसके निशाने पर मध्यपूर्व ही नहीं बल्कि भारत की हदें भी हैं। इसकी आंच देश तक पहुंच भी गई है। लेकिन देखना बस
यही है कि अभी तक इस संगठन के लिए एक राजनीतिक मौन व अक्रियशीलता ओढ़े सरकार आइएस की भारत में फेंकी गई चिंगारी के लपटदार होने की प्रतीक्षा करती है या निर्णायक कार्रवाई की कोशिश। इस पर विवाद है
कि आइएस में देश के कितने युवा शामिल हुए। वे 27 हैं या महज चार या और भी कम या ज्यादा। लेकिन यह तथ्य निर्विवाद है कि आइएस के आकर्षण में भारतीय युवा खिंचने लगे हैं। चार का कम से कम आंकड़ा इसलिए,
क्योंकि केंद्र सरकार आधिकारिक रूप से यह मान चुकी है कि चार युवक आइएस में शामिल हो चुके हैं। इनकी पहचान भी हो चुकी है और ये चारों पिछले साल मई में ही आइएस के लिए मोसुल रवाना हो गए थे। पड़ोसी
राज्य पाकिस्तान से देश में आतंकवाद को बढ़ावा मिलने के कारण अलग हैं। दुश्मन देश हर तरह से अस्थिरता फैलाने की कोशिश करेगा ताकि देश को उन समस्याओं में उलझाए रखे। फाइलों के पुलिंदे पाक सरकार के
सुपुर्द हो चुके हैं जिनमें सबूतों की भरमार है। कैसे आतंक की फंडिंग व ट्रेडिंग हो रही है। पर भारत में आइएस के फैलाव के मायने क्षेत्रीय संकीर्णता से परे हैं। आइएस के सरगना अबू बकर अल बगदादी ने
खलीफा का ख्वाब देखा है। पिछले साल 24 जून 2014 को बगदादी दुनिया भर के मुसलमानों का स्वघोषित खलीफा बन गया था। खलीफा के सपनों का संसार भी खलीफाई ही होगा। जाहिर है कि बगदादी आतंक की आग से
दुनिया को जला कर ज्यादातर मुसलिम आबादी को अपने राजनीतिक अधिकार क्षेत्र में होने का ख्वाब पाले है। इसके लिए बगदादी को कुछ शुरुआती कामयाबी इराक के तख्तापलट से उपजी अराजकता से मिली। इसके बाद
बगदादी को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी क्योंकि अलकायदा के इस्लामी जेहाद की जगह सुन्नी जेहाद की जमीन अबू मुसाब अल जरकावी ने तैयार कर रखी थी। कई तेल के कुओं पर कब्जा करके आइएस ने अपनी कमाई का
एक ऐसा ठोस जरिया खड़ा किया जिसके कारण पैसे की चमक-दमक जन्नत व हूरों के ख्याली आकर्षण के कारण ‘खाली हाथ, खाली दिमाग’ युवा इसके चंगुल में फंसते चले गए। इस बात से बेखबर कि जिस्म से बंधी बेल्ट के
साथ खुद भी खाक हो जाने के बाद ऐसा कोई वापसी का रास्ता नहीं, जिस पर चल बगदादी से जन्नत की हूरों के न मिलने की शिकायत भी कर सकें। दुर्भाग्य यह है कि जागरूकता के एक ऐसे मंच से बगदादी ने अपना
यह ख्याली तानाबाना बुना है जिसे ज्ञान का भंडार कहा जाता है। वैश्विक जागरूकता के समय में बगदादी ने इंटरनेट के जरिए ही मुसलिम युवाओं के सामने जन्नत का जाली नजारा खड़ा किया है। वक्ती लालच और
रोजमर्रा की परेशानियों से जूझते बेरोजगारों को यही एक ऐसा सहारा दिखता है जहां इस जन्म में नहीं तो मरने पर ही ऐशे इशरत मिल जाए। आइएस ने पिछले डेढ़ साल से कुछ ही ज्यादा समय में अपने दोस्तों और
दुश्मनों का बड़ी सजगता से चयन किया है। धर्म की सीमा में यह लड़ाई शिया और सुन्नी के मंच से लड़ी जा रही है। अभी तो अपने प्रभाव क्षेत्र का 50 फीसद सहज ही अपने साथ संजोया है। यही विभाजन भारत में भी
आइएस की ताकत को मजबूत या कमजोर करता है। देश के 39 कामगार आइएस के कब्जे में हैं। देश के निजाम को यह विश्वास है कि उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया है। लेकिन अनिश्चितता बदस्तूर है।
शिया-सुन्नी के इस विभाजन के कारण ही बहुत से देश धर्म के अंदरूनी बवाल से दूर ही रहने में भलाई समझते हैं। भारत के पास इस समय अपनी दूसरी राजनीतिक, सामाजिक, जातीय, सांप्रदायिक व पड़ोसी आतंक से
जुड़ी इतनी समस्याएं हैं कि इसे एक और मोर्चे पर एक नई लड़ाई शुरू करने का औचित्य शायद ही नजर आता है। लिहाजा, आइएस पर एक सोची-समझी रणनीति पर ही चला जा रहा है। लेकिन एक राजनीतिक या कूटनीतिक विवशता
के कारण क्या देश के युवाओं का गुमराह होना कबूल किया जा सकता है? यह एक ऐसा सवाल है जिस पर आज नहीं तो कल सरकार को एक तरफ होना ही होगा। खबरों की मानें तो आइएस की इस लड़ाई में छह भारतीयों की मौत
हो चुकी है। खबरें यह भी हैं कि आइएस में शामिल भारतीय को ‘तुच्छ काम’ ही दिए जाते हैं जैसे सफाई और घरेलू सहायकों के काम। गरीबी और बेरोजगारी की कड़ी मार झेल रहे मुल्क में रोजगार का कैसा भी साधन
जीवन बसर की गारंटी लगने लगता है। सच्चाई यह भी है कि ऐसे बहुत से भारतीय हैं जो पश्चिम में अपनी मर्जी से जाकर कैसा भी काम कर लेते हैं। ऐसे में जीवनयापन की इस गारंटी के साथ जब जन्नत और हूरों
का प्रलोभन भी हो तो यह एक मारक मिश्रण बन जाता है। विज्ञान ने अगर इंटरनेट का आविष्कार करके उसे प्रचार-प्रसार का सबसे मजबूत माध्यम बनाया है तो उसमें अवरोधक खड़ा करने के अवसर भी पैदा किए हैं।
भारत के लिए जरूरी है कि ये अवरोधक प्रभावी तरीके से आइएस के नेटवर्क को रोकने के लिए इस्तेमाल किए जाएं, वरना बांग्लादेश और मालदीव तक पंख फैला चुके इस संगठन की घुसपैठ महज वक्त की बात ही मानी
जाएगी। वक्त पर लगाया गया एक टांका बाद में पूरी पोशाक नए सिरे से सिलने की कवायद से बचा सकता है। भारत में आइएस पर प्रतिबंध लगाने में पहले ही देर हो चुकी है। बहरहाल, इस मोर्चे पर देर से ही सही
कार्रवाई हो रही है। एक निष्ठुर पड़ोसी मुल्क के कारण भारत का आइएस के खतरे से आगाह रहना और भी जरूरी है। क्योंकि अपनी ही जमीन पर आतंकवाद को शह देकर उसे अपने राजनीतिक हित साधने वाले पाकिस्तान से
किसी संकट के समय कोई सकारात्मक अपेक्षा रखना मूर्ख के स्वप्न संसार जैसी ही रचना है। आतंकवाद या आतंकवादी की दूरी या नजदीकी के कोई मायने नहीं होते। अलकायदा अगर न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर
गिरा सकता है और अमेरिका सद्दाम की हुकूमत को नेस्तनाबूद कर सकता है तो कुछ भी ज्यादा दूर या कम पास नहीं है। विश्वशांति को प्रयासरत निष्पक्ष संस्थाओं की आतंक के खिलाफ लड़ाई को एक दूरी से देखना
भारत के वैश्विक माहौल में शायद उतना आसान न हो। खास तौर पर तब, जबकि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विश्व के हर कोने में जाकर आतंक के लड़ने और मिलजुल कर रहने का संदेश दे रहे हैं। इतिहास गवाह
है कि दुष्ट के दुष्चक्र का फैलाव सच्चाई के प्रवाह को अंधेरे में बदलने की क्षमता रखता है। आतंक का खात्मा संभव है या नहीं इस पर विचार हो सकता है लेकन आतंक के प्रसार को रोका जा सकता है, इसमें
शायद ही संदेह हो। आतंक का समंदर सूख जाए और कुछ कतरे इधर-उधर पड़े भी रहें तो वे वैसे विनाशकारी नहीं हो सकते जैसे संगठित होकर। आइएस ने जिस कामयाबी से अपनी लड़ाई को शिया-सुन्नी की लड़ाई में बदल कर
खुद को ‘काफिरों’ के खात्मे के मिशन से जोड़ा है उससे मध्यपूर्व के कुछ मुल्क सहज ही उसके साथ हो गए हैं। लेकिन इस लड़ाई में एक प्रकाश रेखा इसके अंधकार को चीरती हुई दिखाई दे रही है। पेरिस में हुए
हमलों ने विश्व शक्तियों को आइएस के खिलाफ एकजुट होने के लिए एक मंच पर तैयार किया है। जिसमें आज नहीं तो कल सब को एक तरफ होना ही होगा। जी-20 सम्मेलन में रूस के राष्टपति ब्लादीमिर पुतिन ने बहुत
बार कही गई बात कही कि बहुत से मुल्क आइएस का वित्तपोषण कर रहे हैं और अपने फायदे के लिए आतंकवाद को पाल-पोस रहे हैं। यह दीगर है कि चाहे यही बाद में उनके लिए भी खतरा खड़ा कर दें। यह भी मानने
वालों की कमी नहीं कि कभी पश्चिम को आइएस के अस्तित्व में ही अपनी भलाई दिख रही थी। लेकिन पेरिस के हमलों ने स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया है। दरअसल, आतंकवाद में जो मुकाम आइएस ने हासिल
किया है वह इसके पहले कोई आतंकवादी संगठन नहीं कर पाया है। पिछले करीब दो साल में आइएस ने इराक से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद पहले तेल के कुओं पर और फिर मोसुल और रक्का जैसे शहरों पर कब्जा कर
अपने लिए अकूत संपत्ति खड़ी कर ली। अब उसे अपने प्रचार-प्रसार के लिए किसी का मुंह देखने की जरूरत नहीं रही। इसके अलावा लूट, अपहरण, फिरौती और ऐसे अनगिनत अपराध तो हैं ही। अपनी दुर्दांदता के वीडियो
रिलीज करके अपने आतंक को न सिर्फ परिभाषित किया वरन आतंकवाद का सिक्का जमाने की दिशा में भी नया कदम उठाया। जाहिर है कि एक छुपते-छुपाते व डरे हुए संगठन से निपटने से कहीं ज्यादा बड़ा खतरा एक
संगठित और अमीर संगठन से ही होता है। यह माना जाता है कि आइएस का सालाना बजट सवा दो सौ अरब डॉलर का है। उसकी नापाक नजर पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम पर है। खुफियातंत्र का यह इशारा भी है कि यह
संगठन जैविक और रासायनिक हथियारों की दौड़ में भी है। ऐसे में इसका विश्व के किसी भी देश के लिए खतरा बन जाना कोई हैरानी की बात नहीं है। भारत मुसलिम आबादी में इंडोनेशिया के बाद दूसरे नंबर पर है।
ऐसे में भारत को अतिसावधान रहना जरूरी ही नहीं वांछित भी है। भारत को एक और कारण से भी सजग रहना होगा। हाल ही में जब तुर्की ने रूस के एक विमान को मार गिराया तो अप्रत्यक्ष तौर पर इस संगठन के कारण
ही विश्व ने खुद को तीसरे युद्ध की कगार पर खड़े पाया। तुर्की सीरिया की असद सरकार के खिलाफ है और यह माना जाता है कि उसे आइएस के खिलाफ रूस का अभियान मंजूर नहीं है। आखिर मौजूदा सरकार का विरोध
करके सीरिया के बड़े हिस्से पर कब्जा करके आइएस तुर्की की मनोकामना ही पूरी कर रहा है। रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने इसे पीठ में छुरा घोंपने के समान कार्रवाई बताते हुए उसका जवाब देने का संकल्प लिया
तो अमेरिका व सभी नाटो देश तुर्की के समर्थन में आ गए। नाटो की आनन-फानन में बुलाई बैठक में रूस की धमकी भरी भाषा की निंदा की गई। भविष्य में आइएस की बदौलत होने वाले ऐसे किसी भी ध्रुवीकरण की
स्थिति में भारत के सामने एक बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा क्योंकि ऐसे में विश्व के किसी भी देश का तटस्थ रहना संभव न होगा। रूस भारत का पुराना सहयोगी व मित्र देश है जबकि आतंकवाद के मौजूदा दौर में
अमेरिका सबसे बड़ा मददगार। और ये दोनों तो आमने-सामने होंगे यह तय है। जाहिर है, ऐसे में आइएस के खतरे से सावधान रहना और उसे अपनी धरती पर न पनपने देना भारत के लिए उतना ही जरूरी है जितना जीवन के
लिए जल। और यह एक मजबूत खुफिया तंत्र और सीलबंद सीमा के साथ ही हो सकता है। कुल मिला कर देश की अंदरूनी व बाहरी शांति के लिए जरूरी है कि कभी भी आतंकवादी शक्तियों का ध्रुवीकरण करने में सक्षम आइएस
का देश में उदय न हो, अगर यह सिर उठाए भी तो तेजी से उसका खात्मा किया जाए।