राजनीति: वैश्विक अशांति और जल

राजनीति: वैश्विक अशांति और जल

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हम इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे दशक के अंतिम वर्ष में प्रवेश करने वाले हैं। इस वक्त की दो सबसे बड़ी सामाजिक चुनौतियां हैं- हताशा और तनाव। इन चुनौतियों के फलस्वरूप प्रमुखता से उभरते दृश्य चार


हैं: अशांति, आत्मघात, विस्थापन और युद्ध। ये दृश्य पूरी दुनिया में तेजी से फैल रहे हैं और काफी गंभीर व कष्टदायक हैं। संयुक्त राष्ट्र चिंतित है कि लोग आपस में लड़ क्यों रहे हैं। उसकी चिंता यह


भी है कि लोग एक देश से उजड़ कर दूसरे देशों में क्यों जा रहे हैं। यूरोपीय शहरों के मेयर चिंतित हैं कि विस्थापित उनके यहां आकर क्यों बस रहे हैं। जहां एक ओर भूखे, बीमार, लाचार लाखों परिवार


रोजगार और शांति की तलाश में अपनी जड़ों से उजड़ने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर जिन इलाकों में वे जाकर बस रहे हैं, वहां कानून-व्यवस्था की समस्याएं खड़ी हो रही हैं। सांस्कृतिक तालमेल न बनने से भी


समस्याएं हैं। इन समस्याओं और चिंताओं में तीसरे विश्व युद्ध के बीज मौजूद हैं। ज्यादातर प्रचार यही है कि इस अंतरराष्ट्रीय उजाड़ का कारण आतंकवाद, सांप्रदायिक विभेद, सीमा-विवाद अथवा आर्थिक तनातनी


है। किंतु सच यह नहीं है। सच यह है कि बढ़ती हवस, बढ़ता उपभोग, घटते प्राकृतिक संसाधन और दूसरे के संसाधन पर कब्जे की नीयत ने ये हालात पैदा किए हैं। इन संसाधनों में पानी सबसे प्रमुख है। यकीन न हो


तो दुनिया के मानचित्र पर निगाह डालिए। आज तुर्की-सीरिया-इराक विवाद ने शिया-सुन्नी और आतंकवादी त्रासदी का रूप भले ही ले लिया हो, किंतु वास्तविकता यही है कि विवाद की शुरुआत इफरेटिस नदी के पानी


को लेकर ही हुई थी। इफरेटिस नदी, तुर्की से निकल कर सीरिया होते हुए इराक तक जाती है। तुर्की का दावा है कि इस नदी में आने वाले कुल पानी में साढ़े अट्ठासी प्रतिशत योगदान तो अकेले उसका ही है, फिर


भी वह तो मात्र तियालीस प्रतिशत पानी ही मांग रहा है। दूसरा पक्ष देखिए। इफरेटिस के प्रवाह में सीरिया का योगदान 11.3 प्रतिशत और इराक का शून्य है, जबकि पानी की कमी वाले देश होने के कारण सीरिया,


इफरेटिस के पानी में बाईस प्रतिशत और इराक तियालीस प्रतिशत हिस्सेदारी चाहता है। वस्तुस्थिति यह है कि तुर्की ने मूल नदी जल बंटवारा संधि (1987) का उल्लंघन करते हुए 15 अप्रैल, 2014 के बाद से


इफरेटिस नदी के प्रवाह में कटौती करनी शुरु की और अपनी दादागीरी जारी रखते हुए 16 मई, 2014 को सीरिया और इराक के हिस्से का पानी छोड़ना पूरी तरह बंद कर दिया। परिणामस्वरूप, नदी किनारे की खेती योग्य


भूमि रेगिस्तान में तब्दील होती गई। सीरिया दुनिया में सबसे पुरानी खेती का देश है। नदी जल विवाद ने ऐसे देश के एक बड़े भू-भाग में खेती कार्य को दुष्कर बना दिया। इससे करीब बीस लाख की आबादी उजड़ी।


उजड़ने वाले बगदाद गए, लेबनान गए, फिर ग्रीस, तुर्की से होते हुए जर्मनी, ब्रिटेन, स्वीडन, नीदरलैंड, आॅस्ट्रिया, बेल्जियम और यूरोप के देशों तक पहुंचे। आज सीरिया में पानी का संकट इतना गहरा है कि


सीरिया की करीब सत्तर प्रतिशत आबादी पीने के पानी की कमी से जूझ रही है। जब पीने को पानी ही पर्याप्त नहीं तो भूख का इंतजाम कहां से हो? यदि हम इफरेटिस नदी में 17.3 अरब क्यूबिक मीटर जल की


उपलब्धता आंकडेÞ देखें तो समझ में आता है कि संबंधित तीनों देशों में पानी की मांग ज्यादा है और इफरेटिस नदी में पानी कम है। इसलिए मांग-आपूर्ति के इस असंतुलन के कारण भी तीनों देशों के भीतर तनाव


बढ़ना ही था। तुर्की और इराक के लोगों द्वारा सीरिया के विस्थापितों के घरों और जमीनों पर कब्जे की हवस ने पूरा माहौल ही तनाव और हिंसा से भर दिया। अब कोई तुर्की से पूछे कि सीरिया और इराक में


विस्थापन की बुनियाद किसने रखी? तुर्की द्वारा इफरेटिस और टिगिरिस पर बांधों ने ही तो। दूसरा उदाहरण फिलस्तीन है। फिलस्तीन के पश्चिमी तट के साझे स्रोतों के पिच्यासी प्रतिशत पानी का उपयोग इजरायली


कर रहे हैं। वे इजरायली किबुत्जों के नियंत्रण में हैं। एक ओर फिलस्तीन में बाहर से आकर बसे इजरायलियों के पास बड़े-बडेÞ खेत हैं, बागान हैं, स्वीमिंग पूल हैं। इजरायलियों के पास सिंचाई हेतु


पर्याप्त पानी है, दोहन के लिए मशीने हैं तो दूसरी ओर ग्रामीण फिलस्तीनियों को बहता पानी तक नसीब तक नहीं है। वे जोे पानी पी रहे हैं, वह जहरीला है। इसलिए ज्यादातर लोग किडनी में पथरी जैसी


बीमारियों के शिकार हैं। फिलस्तीनियों के पास जमीने हैं, लेकिन वे इतनी सूखी हैं कि वे उनमें कम पानी की फसलें भी नहीं उगा सकते। यही वजह है कि एक आम फिलस्तीनी, एक दुखी खानाबदोश की जिंदगी जीने को


मजबूर हैं। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो कि जब किसी न किसी इजरायली और फिलस्तीनी के बीच पानी को लेकर मारपीट न होती हो। सीरिया, तुर्की, इराक, फिलस्तीन, इजरायल के ये टकराव तो नजीर मात्र हैं।


मध्य एशिया और अफ्रीका के करीब चालीस देशों में कायम सामुदायिक अस्थितरता का मूल कारण पानी ही है। जॉर्डन, केन्या, यूथोपिया, सोमालिया, सूडान, ब्राजील सब जगह एक जैसे हालात हैं। समय बीतने के


साथ-साथ यह समस्या और गंभीर होती जा रही है। जैसे-जैसे दूसरे देशों में शरणार्थियों की संख्या बढ़ रही है, अशांति बढ़ रही है। सत्ता में बने रहने की राजनीतिक चालें, जस संकट से उपजे इस संकट को वर्ग


और सांप्रदायिक विभेद और राष्ट्रवादी नारों के रंग भरकर पेश कर रही हैं। ये चालें दुनिया कोे हिंसा और युद्ध के जिस रणक्षेत्र की ओर ले जा रही हैं, क्या यह पानी की खातिर विश्व युद्ध का


कुरुक्षेत्र नहीं है? सवाल है कि क्या भारत इससे अछूता है? इस साल मार्च में दिल्ली की एक झुग्गी बस्ती में पानी के झगडेÞ में एक की हत्या कर दी गई थी। पानी की आपूर्ति में कमी और बिल में बढ़ोत्तरी


के विरोध जयपुरवासी सड़क पर उतरे। शिमलावासियों के नलों में तीसरे दिन आते पानी का आक्रोश, स्वयं हिमाचल के महामहिम राज्यपाल के मन में दिखा। उत्तराखंड के बानवे में से इकहत्तर नगरों-कस्बों में


मानक से बहुत कम और खराब पानी मिला। पानी से जुड़ी कई समस्याएं भारत के लिए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विवाद का कारण बनती जा रही हैं। सतलुज नदी बंटवारे के कारण हरियाणा-पंजाब के बीच तलवारें खिंचती


रहती हैं। कावेरी जल विवाद का आक्रोश हमने बीते मार्च-अप्रैल के दौरान संसद में भी देखा और सड़कों पर भी। मानसरोवर स्थित मूल स्रोत से निकलने वाली सिंधु नदी के लद्दाख क्षेत्र में कब्जे की चीनी


साजिशों से हम वाकिफ हैं ही। भारत आने वाले तिब्बती प्रवाहों में चीन द्वारा परमाणु कचरा डालने और बांध बना कर पानी रोकने की करतूतें पुरानी हैं। जल बंटवारे को लेकर पाकिस्तान के साथ हमारे विवाद


हैं। नेपाल मूल की नदियों में नेपाल द्वारा छोड़े गए पानी से भारत में होने वाली तबाही को लेकर हम चिंतित रहते ही हैं। दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में अशांति पानी से उपजी है तो शांति का मार्ग भी


पानी में ही तलाशना चाहिए। किंतु भारत के पानी संकट का समाधान, इजरायली के जल प्रबंधन का मॉडल नहीं हो सकता। भारत का जल प्रबंधन दूसरे के संसाधन की ओर ताकने की बजाय अपने पास जो है, उसी से जीवन


चलाने वाला होकर ही शांतिप्रद हो सकता है। पानी के उपयोग के मामले में हमें अनुशासित होना पड़ेगा, जल अपव्यय की आदत छोड़नी होगी। कम पानी और वर्षा आधारित खेती-बागवानी को अपनाना चाहिए। जितना पानी


कुदरत से लें, उसे वैसा और उतना पानी संचित करके लौटाना चाहिए। जितना पानी बरसता है, उसे संचित करके हम ऐसा कर सकते हैं। हमारे जल संकट का समाधान भी हमारे प्रबंधन में ही है।