ललित प्रसंग: नीम की छाया

ललित प्रसंग: नीम की छाया

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वह लुभाती है। नीम की छाया। गरमियों में सभी को। पंछियों को। बटोहियों को। पशुओं को। और उनको तो जरूर ही, जो उसके आसपास ही कहीं रहते हैं। और यह छाया भी तो कहीं भी हो सकती है- नीम-छाया। नदी


किनारे। किसी पहाड़ी पर। टीले पर। मैदान में। किसी गली सड़क में। खेतों के बीच कहीं। किसी राष्ट्रीय राजमार्ग पर। वह रिहाइशी मकानों के किसी परिसर में भी हो सकती है। वह हो सकती है, ताल-झील के


किनारे भी। किसी रेलवे प्लेटफॉर्म पर भी। रेलवे क्रासिंग के पास। भला कोई अंत है! उसकी हरी घनी पत्तियों का आकर्षण ही कुछ और है। और गरमियों में ही क्यों, उस पर से झरती वर्षा-बूंदें भी क्या कोई


कम आकर्षक होती हैं। न जाने क्यों नीम के पेड़ की याद नीम की छाया के साथ आती है। पेड़ की पत्तियों का स्वाद कड़वा है, पर छाया का मीठा। बहुत मीठा। बहुत ठंडा। जैसे कि शर्बत हो नीम की छाया, जिसे पीया


जा सकता है। हां, हम इसकी छाया को घूंट-घूंट कर पीते ही तो हैं। वह हवा के साथ हिलती है। कुछ मचलती-सी। पर, हवा को भी उसे डुलाने में आनंद आता है, जैसे वह हवा के हाथों में कोई हाथ-पंखा हो। हां,


हवा हिलाती तो नीम की पत्तियों को ही है, पर नीम का पेड़ हर-हमेशा हमें नीम छाया में ही तब्दील होता दीखता है।और यह छाया! वह परिवर्तनशील है। धूप-छांही। सुबह को कुछ और, शाम को कुछ और। दोपहर को कुछ


और। और रात को वह हो जाती है घनी। अंधेरी। घुप्प। चुप्प वह प्राय: नहीं होती। छायावाद के कविवर सुमित्रानंदन पंत ने लिखी है न कविता- ‘झंझा में नीम’- ‘सर सर मर्मर/ रेशम के से स्वर भर/ घने नीम


दल/ लंबे, पतले, चंचल/ श्वसन-स्पर्श से/ रोम हर्ष से/ हिल हिल उठते प्रतिपल।’ और सुभद्राकुमारी चौहान की पहली कविता भी तो नीम पर ही थी। उसके सभी रूपों-गुणों का स्मरण करती हुई। मात्र नौ वर्ष की


उम्र में यह कविता लिखी थी सुभद्रा जी ने। प्रकाशित हुई थी ‘मर्यादा’ पत्रिका में, 1913 में। ‘सब दुख हरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूं तुझे/ तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे।/ हो लहलही


पत्तियां हरी, शीतल पवन बरसा रही/ निज मंद मीठी वायु से सब जीव को हरषा रहीं/ हे नीम! यद्यपि तू कड़ू, नहीं रंच मात्र मिठास है/ उपकार करना दूसरों का गुण तुम्हारे पास है।’ हां, उस पर बहुत कुछ लिखा


गया है। गद्य में। पद्य में। पर, पद्य में यह छाया कुछ और खिल उठती है। नीम के अपने को जन्माना भी खूब आता है। देखिए न वर्षा में जहां भी पड़ा हो कोई नीम-बीज, वहीं उग आता है, एक नन्हा-सा पौधा।


नीम-शिशु। अपनी छाया बनाता हुआ, जो उसके किशोर और युवा दिनों में एक-आकार में भी कुछ-कुछ तो दिखने या झलकने लगती है। सब पौधे बच नहीं पाते। पर, कुछ तो बचते ही हैं, आगे चल कर एक घनी छाया में बदलने


के लिए। अक्सर सभी प्रदेशों में दिखी है नीम की छाया। हम और कुछ पहचान पाएं या नहीं, नीम, बरगद, आम, पीपल को जरूर पहचान लेते हैं। और कब नहीं देखा हमने नीम की छाया में किसी को बैठे हुए।


सुस्ताते। उसके नीचे चारपाई बिछा कर लेट जाते। गरमियों में तो यह दृश्य अब भी आम है। नीम की छाया के नीचे चारपाई है। उस पर कोई बैठा या लेटा हुआ है। पास ही रखा है मिट्टी का घड़ा। और क्या चाहिए! यह


दृश्य मानो भारतीय जीवन के संतोष की कथा कहता है। नीम में फूल भी आते हैं। सफेद। सुंदर। उनकी महक भी बड़ी खास होती है। नीम में ही आती हैं, निबौलियां। पक जाने पर पीली होकर कुछ मीठी हो जाती हैं।


नीम की पत्तियां हों या निबौलियां, झरती बड़ी तेजी से हैं- आंधी में, बारिश में। तेज हवा में। नीम के फूलों पर बड़ी सुंदर कविता है कुंवर नारायण की : ‘नीम के फूल’ शीर्षक से ही, जो इस तरह समाप्त


होती है : ‘याद आता नीम के नीचे रखे/ पिता के पार्थिव शरीर पर/ सकुचाते फूलों का वह वीतराग झरना/ जैसे मां के बालों से झर रहे हों-/ नन्हे नन्हे फूल जो आंसू नहीं/ सांत्वना लगते थे।’ अगर किसी के


भी बचपन में नीम का कोई पेड़ आसपास रहा है, तो उसने जरूर ही जीवन भर ‘अपनी’ याद दिलाई है। ऐसा मैं सोचता हूं। मेरा अनुभव भी यही कहता है। हमारे गांव वाले घर के ठीक सामने मिट्टी के एक चबूतरे पर जो


नीम का एक पेड़ था, उसे मैं ही कहां भूला हूं। हमारे घर के ठीक सामने पक्का चबूतरा था बड़ा-सा, फिर कच्चा रास्ता भी और फिर था वह माटी वाला चबूतरा, जो हमारे घर के ठीक सामने वालों का था। इस तर्क से


नीम का पेड़ भी उन्हीं का था, पर वह सामने के कच्चे रास्ते पर भी छाया करता ही था : यही बताता हुआ कि नीम की छाया सबकी छाया हो जाती है। पेड़ की ओर से सोचें- उस पेड़ की ओर से- तो वह ‘देखता’ है कि


उसके सामने भी एक और घर है, और पीछे भी एक घर है, पर वह स्वतंत्र है। सबका है। नीम के पेड़ को लेकर संभवत: झगड़े बहुत कम होते हैं। आप दातुन के लिए टहनी तोड़ लीजिए, कोई हर्ज नहीं। मधुमेही, चबाने के


लिए कोमल पत्तियां तोड़ लें, कोई बात नहीं। उसकी छाया में आना चाहते हैं, आइए, स्वागत है। आम-जामुन के मालिकों की तरह, नीम के मालिक को कोई मलाल नहीं। हां, डालियां आदि काटने पर तो आपत्ति है, और


ठीक ही है। नीम की कड़वाहट भी उसे ‘बचाती’ है, कुछ तो, कई मामलों में। बहरहाल, कुछ प्रदेशों में उसकी पत्तियां भोजन को सुस्वादु बनाती हैं। बंगाल में ‘नीम बेगुन’ (नीम और बैंगन प्रचलित है न!) कोमल


पत्तियों को बैंगन में मिला कर तलने की विधि! घरेलू दवा तो वह है ही! नीम के पेड़ भीमकाय भी होते हैं। बहुत बड़े। ऊंचे। घने। एक ऐसे ही नीम के पेड़ से परिचित हूं। मई-जून के महीने में उसकी पत्तियां


पीली भी हो जाती हैं। हरी-पीली पत्तियों से लदा वह एक नई छटा बिखेरता है। पीली पत्तियां झरती हैं। कुछ दूर से देखें तो वे शायद नन्ही तितलियों-सी मालूम पड़ें। उड़ती हुई। कुल मिलाकर यह कि उसकी


कोंपलों के रंग से लेकर, उसकी हरी-पीली पत्तियों तक के रंगों का अपना एक अलग आकर्षण है। हां, छाया बराबर ही तृप्तिकर है। ठीक ही मानते हैं कि उसका कोई अंग बेकार नहीं है। नीम-रस औषधियों के काम आता


है। उसकी पत्तियां गरम कपड़ों के बीच रख दी जाती हैं कि उन्हें कीड़े-मकोड़े क्षति न पहुंचाएं। वे घर से कई दिनों-महीनों के लिए बाहर जाने पर, चावल-दाल के डिब्बों में भी डाल दी जाती हैं, इसी


उद्देश्य से। नीम सदाबहार पेड़ है। कभी भयंकर अकाल या सूखे में, वह मुरझा जाए तो मुरझा जाए। वह पानी पड़ते ही अपने को जीवित करना जानता है। नीम रूप। नीम आकार। वह बना रहे। बचा रहे।