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आमतौर पर रोज सवेरे के छह बजे अचानक खिड़की पर कांव-कांव शुरू हो जाती है। यानी वह कौवा आ चुका होता है। कुछ दिन पहले मैंने उसे बनावटी डांट लगाई कि अभी मैंने चाय तक नहीं बनाई, पीना तो दूर की बात
है और तुम आ बैठे! क्या तुम्हारा कर्ज खाया है कि रोज सवेरे आकर वसूल करते हो? तुम्हें पता कैसे चलता है कि मैं आ गई? खिड़की खोलने पर भी वह उड़ता नहीं।अपनी गोल काली आंखों से देखता है। मुझे उनमें
याचना की जगह अधिकार भाव दिखता है कि जल्दी खाने को दो… भूख लगी है। जरा-सी भी देर हुई, तो वह इतना शोर मचाता है कि सब कहते हैं कि वह बच्चों की तरह रोता है। मुझे भी पता था कि मैंने उसे डांट नहीं
लगाई थी। बस मुझे उसकी आदत-सी हो गई है कि वह आएगा और मैंने बस प्यार से ही उसे डांटा था। यह मैं खुद को समझा रही थी कि मैं सचमुच उस पर गुस्सा नहीं थी। बल्कि सच यह था कि मुझे उसका और उसके
दोस्तों का इंतजार रहता है। खिड़की पर बैठे उसकी लंबी चोंच लगातार इधर से उधर हिलती रहती है, पंजे मजबूती से खिड़की के सिरे पर जमे रहते हैं। उसकी गर्दन वैसे ही घूमती है जैसे कि ड्राइविंग स्कूलों
में ड्राइविंग सीखने वालों को समझाया जाता है कि गर्दन हमेशा कौवे की तरह घूमती रहनी चाहिए। उस दिन गड़बड़ यह हो गई थी कि रात को उसके लिए रोटी बनाना भूल गई और ब्रेड भी नहीं था। मैंने सोचा कि
बिस्कुट से ही काम चला लूंगी। हालांकि मैंने गौर किया है कि बिस्कुट उसे जरा भी पसंद नहीं। कठोर होने के कारण उसकी सीधी चोंच उन्हें ठीक से नहीं तोड़ पाती। फिर भी कई बार वह उन्हें लेकर उड़ जाता है।
मैंने अब तक जितना जाना है उसके बारे में मैं उसकी समझ का अंदाजा लगा पाती हूं कि जरूर वह कहीं पानी में भिगो कर खाता होगा। वैसे भी कौवे सूखे भोजन को पहले पानी में भिगोते हैं, फिर खाते हैं।
लेकिन इन दिनों उनके पीने के लिए पानी भी तो आसानी से उपलब्ध नहीं! बचपन में प्यासे कौवे की कहानी पढ़ी थी कि कैसे घड़े में पानी कम था तो कौवे ने कंकड़ से घड़े को भरना शुरू किया और पानी ऊपर आ गया।
अभी हाल में भी एक वीडियो देखा कि कौवे ने किसी नल की टोंटी को घुमा कर खोला और पानी गिरने पर अपनी प्यास बुझाई। इसके अलावा भी कौवे को बुद्धिमान साबित करने वाले कई प्रयोग सामने आ चुके हैं।
बहरहाल, मेरे पास भी मजबूरी थी तो बिस्कुट ही देने पड़े। घर में ऐसी कोई नरम चीज उपलब्ध नहीं थी, जिसे वह आसानी से खा सके। बिस्कुट रखने के बाद याद आया कि इकलौता यही तो नहीं है! अभी तो एक आंख वाला
कबूतर, उसके साथी गिलहरी, कई गौरैया भी आने वाली हैं। उनके लिए बाजरे के चार चमचे भर कर डालती हूं। कौवा बिस्कुटों को शिकायत भरी नजर से देखता है। फिर गुस्से से बाजरे में इस तरह से चोंच मारता है
कि मुझे दिखा सके कि लो, तुमने मेरे खाने के लिए तो बाजरा रखा नहीं है। मैं इसे खाता भी नहीं, तो दूसरे क्यों खाएं। इसलिए नीचे गिरा रहा हूं। वह बिस्कुटों को देखता है, फिर शिकायती नजरों से मुझे
भी। मैं इस तरह के अपनापे पर खुश होती हूं, मुस्कुराती हूं। यह रोज का किस्सा है और मेरी दिनचर्या का हिस्सा है। कई बार तो कौवा या उसका कोई दोस्त शाम को भी आता है। तब लगता है कि शायद उस दिन उसे
कहीं और कुछ खाने को न मिला हो। सच है कि हम मनुष्यों की दुनिया के फैलने के साथ-साथ पंछियों की दुनिया सिमटती जा रही है। दिल्ली में एक ‘क्रो मैन’ के नाम से मशहूर व्यक्ति द्वारका में रहते हैं।
उनके घर के आसपास के पेड़ों पर जितने कौवे रहते हैं, वे सब उन्हें पहचानते हैं। उन्होंने उनके अलग-अलग नाम भी रखे हुए हैं। वे जिसे भी पुकारते हैं, वह तुरंत चला आता है। वे कहते हैं कि कौवा बहुत
होशियार प्राणी है। उनके अनुसार वे मौसम के हिसाब से इधर-उधर प्रवास के लिए बाहर भी जाते रहते रहते हैं। लेकिन फिर कुछ समय बाद लौट आते हैं। अपनी खिड़की पर रोज आने वाले इन अतिथियों को देख कर लगता
है कि मैं जिन दिनों कहीं चली जाती हूं, तब ये क्या करते होंगे। क्या इन्हें भी मेरी उसी तरह से याद आती होगी, जैसे मुझे आती है? मैं तो जब भी कहीं और जाती हूं तो सवेरे-सवेरे हमेशा लगता है कि न
जाने वे क्या कर रहे होंगे! इन्हें कुछ खाने को मिला भी होगा या नहीं! हो सकता है कि मैं जहां रहती हूं, वहां और भी कई खिड़कियां ऐसी हों, जहां ये रोज दस्तक देते हों। क्या पता, जब तक मैं लौटूं,
इनमें से कोई फिर कभी देखने को ही न मिले। अक्सर सोचती हूं कि हमारे आसपास ये पशु-पक्षी न हों, तो यह दुनिया कितनी बेरंग और आकर्षणविहीन हो जाए। चीन में जिस तरह से पक्षियों का सफाया किया गया है,
क्या वहां भी लोग इनकी कमी महसूस करते होंगे?