Play all audios:
संजय वर्मा जरूरी नहीं कि कोई आपदा किसी देश की नीतियों को बड़े पैमाने पर बदल डाले। खासकर वे नीतियां, जिनसे देश का विकास प्रभावित होता है और जिनसे अर्थव्यवस्था में गड़बड़ी की आशंका पैदा होती है।
मगर ऐसा लगता है कि कोरोना संकट ने दुनिया के कई संपन्न और विकसित देशों तक को संरक्षणवादी नीतियां अपनाने को बाध्य कर दिया है। सबसे ज्यादा मुश्किलें उन प्रवासियों को हो रही हैं, जो रोजी-रोजगार
की मजबूरियों के चलते शहर पहुंचे थे। खाड़ी के एक अमीर देश कतर में प्रवासी कामगारों को भयानक शोषण का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें वेतन नहीं मिल रहा, नौकरी से निकालने की धमकियां मिल रही हैं। ये
दावे प्रतिष्ठित मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच के हैं, जिसने 24 अगस्त, 2020 को जारी एक रिपोर्ट में कतर में श्रमिकों की स्थितियों का वर्णन किया है। हालांकि कतर ने इस रिपोर्ट से इनकार
किया है। सच्चाई यह है कि कई खाड़ी देशों में प्रवासियों को वहां की नीतियों में किए जा रहे बदलावों के कारण बड़े संकट से गुजरना पड़ रहा है। ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट बताती है कि कतर में मौजूद
सताईस लाख से ज्यादा प्रवासी कामगारों (जिनमें से ज्यादातर भारतीय हैं) की हालत इतनी खराब हो चुकी है कि उन्हें खाने-पीने के संकट से जूझना पड़ रहा है। यह समस्या अकेले कतर की नहीं है। कुवैत में भी
प्रवासी मजदूरों को वहां की बदलती श्रम नीतियों के कारण मुश्किलें झेलनी पड़ रही हैं। वहां की राष्ट्रीय असेंबली ने जुलाई में आप्रवासी कोटा बिल को मंजूरी दी, जिसके चलते करीब आठ लाख भारतीयों को
कुवैत छोड़ना पड़ सकता है। इस विधेयक के मुताबिक कुवैत में भारतीयों की संख्या देश की कुल आबादी के पंद्रह फीसद से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। हालांकि सच्चाई यह भी है कि खाड़ी के अमीर देशों में ऐसा
माहौल काफी अरसे से बना हुआ है। सऊदी अरब तो कई वर्ष पहले से निताकत नामक कानून की आड़ में भारतीय कामगारों को वापस भेजता रहा है। सवाल है कि कोरोना संकट के बहाने की जा रही ये तब्दीलियां क्या इन
देशों पर कोई दीर्घकालिक नकारात्मक असर नहीं छोड़ेंगी! संकट का दूसरा पहलू यह है कि अगर लाखों प्रवासी स्वदेश वापसी को मजबूर हुए, तो उनकी रोजीरोटी का क्या होगा। उनसे मिलने वाली विदेशी मुद्रा में
कमी आई तो भारत की अर्थव्यवस्था कहां जाएगी। फिर आज भले ये खाड़ी मुल्क प्रवासियों को अपने ऊपर बोझ मान रहे हैं, पर सच यह है कि इन्हीं के बल पर इन देशों ने इतना तेज विकास किया है। कुवैत और सऊदी
अरब ही नहीं, अन्य खाड़ी देश भी इसीलिए टिके हुए हैं कि प्रवासियों ने वहां जाकर मेहनत की और उन्हें राख से उठा कर खड़ा किया। सऊदी अरब में ऐसे प्रवासियों की आबादी सत्तावन फीसद, कतर और संयुक्त अरब
अमीरात में पंचानबे फीसद, ओमान में इक्यासी फीसद और बहरीन में तिहत्तर फीसद है। स्थानीय लोगों को नौकरियों में संरक्षण देने के वास्ते कोरोना और अन्य राजनीतिक संकटों का हवाला देकर प्रवासियों को
वापस भेजा गया, तो इससे भारत जैसे देश मुश्किल में अवश्य आएंगे। इन प्रवासियों की रोजी का प्रबंध करने के अलावा संसाधनों पर पड़ने वाले बोझ से निपटना हमारी सरकार के लिए चुनौती होगा। खाड़ी देशों के
अलावा अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी आदि विकसित देशों में 1990 के बाद से किसी और मुल्क में जन्मे लोगों का प्रतिशत कई गुना बढ़ा है। आस्ट्रेलिया और कनाडा में तो ऐसे
प्रवासियों की आबादी वहां की जनसंख्या के मुकाबले बीस से तीस फीसद तक जा पहुंची है। इसकी वजह सिर्फ यह नहीं है कि इन प्रवासियों को अपने देश (मसलन भारत) में रोजगार हासिल नहीं थे, बल्कि यह भी है
कि विकसित देशों को ऐसे मेहनती और स्किल्ड लोगों की जरूरत रही है, क्योंकि मूल निवासी कम पैसे में मेहनत वाला कोई काम नहीं करना चाहते। मेहनत, शैक्षणिक उपलिब्धयों और शालीन व्यवहार के जरिए अपनी
जमीन छोड़ कर विदेशों में किस्मत आजमाने गए भारतीयों ने ही नहीं, कई और देशों के नागरिकों ने पूरी दुनिया में अपने लिए नाम और आदर कमाया है। आईटी, निर्माण, इंजीनियरिंग, अंतरिक्ष, ई-कॉमर्स आदि कई
क्षेत्रों के कर्मचारियों के मामले में राष्ट्रीयता बेमानी हो गई है। ऐसे में इस मसले पर विचार करने की जरूरत है कि अगर इन देशों को मजदूरी से लेकर आईटी जैसे बेहद तकनीकी कामों के लिए मेहनती
प्रवासी नहीं मिलेंगे, तो आखिर उनकी गाड़ी कैसे चल पाएगी। इंसानों की एक से दूसरी जगह आवाजाही का सिलसिला हर दौर में चलता रहा है। भारत से लोगों को रोजगार के वास्ते फिजी-मॉरीशस गए सदियां बीत गई
हैं। भूमंडलीकरण का दौर शुरू हुआ तो दुनिया भर में लोगों का आना-जाना बढ़ा। लगभग हर उस देश में प्रवासी नागरिकों की आबादी भी बढ़ी, जहां रोजी-रोजगार का कोई जरिया बनता था। हालांकि विरल आबादी वाले
विशाल देशों में बाहरी लोगों का दबदबा हमेशा बना रहता है, देर-सबेर उन्हें रोजगार और संसाधनों पर बाहरियों के कब्जे का डर भी सताने लगता है, लेकिन वक्त आ गया है कि दुनिया में उठ रही संरक्षणवाद की
आवाजों के बारे में एक ठोस मत बनाया जाए। यह देखा जाए कि रोजगार या किसी अन्य कारण से दूसरे देशों से आए ये प्रवासी अपने साथ कोई समस्या लेकर आए हैं या फिर रोजी की मजबूरी में ही सही, उन्होंने
अपनी योग्यता का इस्तेमाल दूसरे देशों की तरक्की में किया है। ध्यान रहे कि समय-समय पर यूरोपीय संघ समेत कनाडा आदि मुल्कों ने स्वीकार किया है कि प्रतिभाशाली भारतीयों की बदौलत उनकी अर्थव्यवस्था
को मजबूती मिली है। आज भले खाड़ी देशों से लेकर अमेरिका और ब्रिटेन जैसे मुल्कों की सरकारों और स्थानीय जनता को भी लग रहा है कि अगर प्रतिभा के धनी ये एशियाई, खासकर भारतीय, इसी तरह मेहनत से काम
करते रहे, तो नौकरियों में उनका वर्चस्व बढ़ जाएगा। लेकिन सवाल है कि क्या इन मुल्कों के मूल निवासी प्रवासियों की मेहनत और प्रतिभा का कोई मुकाबला कर पाएंगे। अगर ये अमीर और विकसित देश मेहनती
प्रवासियों से वंचित हुए, तो आगे चल कर उनकी अर्थव्यवस्था के ठप पड़ने और विकास के मामले में बुरी तरह पिछड़ जाने का खतरा भी पैदा होगा, क्योंकि इन देशों के मूल निवासी काम से पहले अधिकारों की बात
करते हैं। प्रवासन या माइग्रेशन का यह मसला सिर्फ देशों के स्तर पर नहीं, स्थानीय स्तर पर भी अपने लिए बेहतर सोच बनाने की मांग करता है। देश के भीतर भी पिछड़े इलाकों से रोजगार के लिए भारी संख्या
में ग्रामीणों का शहरों और विकसित इलाकों की ओर पलायन होता है, लेकिन वहां उनके लंबे समय तक टिके रहने की कोई संभावना नहीं बन पाती है। ऐसे में, कुछ साल तक रोजगार और घर-बार के लिए हाथ-पांव मारने
के बाद ज्यादातर को वापस अपने मूल निवास लौटना पड़ जाता है। जाहिर है, जब हम विदेशों से प्रवासी भारतीयों की वापसी पर सवाल उठाएंगे, तो हमें देश के अंदर कोरोना के बाद भी मेहनत-मजदूरी करने आए उन
घरेलू प्रवासियों के हितों के बारे में सोचना होगा, जिन्हें कभी इस तो कभी उस बहाने अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर वापस उन्हीं गांव-कस्बों में लौट जाना पड़ता है, जहां रोजगार के विकल्प बेहद सीमित
हैं।